पुराने समय में जब किसी लड़की की शादी की जाती थी तो परिवार
के मुखिया उसे कुछ ज़रूरी सामान इसलिए दिया करते थे कि वो अपने जीवनसाथी के साथ नयी
ज़िन्दगी शुरू करे ताकि उसको अपना परिवार चलाने के लिए आम ज़रूरी सामान की ज़रूरत के
लिए परेशान न होना पड़े इस रिवाज़ को कुछ इस तरह भी समझा जाता था की ये उसका हक है
क्योकि वो अब दुसरे घर (ससुराल) जा रही है तो वो उस घर की हो जाएगी और इस घर
(मायका) उसका घर नहीं रहेगा इसलिए उसे इतने साल उस परिवार में रहने का हक था जो
उसे सामान की शक्ल में दे दिया गया कुछ जगह ये भी मान्यता थी कि अगर पति की
अकिस्मत मौत होती है तो लड़की को परिवार चलाने में कुछ तो सुविधा रहे और इस तरह
मायका से मिलने वाला ये वो ज़रूरी सामान हुआ करता था जेसे खाने के बर्तन, बिस्तर
इत्यादि लेकिन रफ्ता रफ्ता ये एक रस्म बन गयी और ये रस्म दुनिया के अधिकांश धर्मो
में थी जेसे जेसे समाज ने विकास किया इंसानों की ज़रूरते बढ़ने लगी और इस आधुनिक युग
में इन्सान की तंग मानसिकता और लालची मिज़ाज के चलते ये एक बीमारी बन गयी और परिवार
चलाने आने वाली लड़की को दहेज़ व मोटा रुपया लाने वाली वस्तु बना दिया गया लड़का
अपनाने से शुरू होकर मंगनी से लेकर दिन तारीख और शादी तक हर मौके पर लड़के वाले ललचाई
नजरो से पैसा मिलने की उम्मीदे लगाये रहते है और इस तरह से एक मदद जो दहेज़ के रूप
में की जाती थी एक लालच बन गयी और मदद करने वाला ज़िम्मेदार बन गया जिसे हर कीमत पर
अपनी बेटी की ख़ुशी के लिए दुनिया भर से क़र्ज़ लेकर शादी और शादी की रस्मे करनी पढ़ती
है और एक बेटी के बाप होने का मतलब ज़िन्दगी भर कमाना कम पड़ने पर क़र्ज़ लेकर बेटी की
शादी करना उसके बाद क़र्ज़ उतारने के लिए मेहनत करना और हर त्यौहार पर बेटी के घर
त्योहारी की शक्ल में खाने पीने का कच्चा सामान व कपडे पहुचना बन गया हलाकि ये सामाजिक
कुरीति दहेज़ प्रथा भारतीय समाज की संस्कृति में शामिल है दहेज़ देने का चलन प्राचीन
काल से अब तक बदस्तूर ज़ारी है और इस सामाजिक कुप्रथा को भारत में व्याप्त सभी
धर्मो के धर्मगुरूओ का भी मूक समर्थन प्राप्त है भारतीय समाज में दहेज़ प्रथा
महामारी का रूप धारण कर चुकी है और इस महामारी में मरने वालो की संख्या दिन ब दिन
बढती जा रही है प्रताड़ना से लेकर दहेज़ हत्या तक होते हुए ये बीमारी आत्महत्या तक
विशाल रूप में फेल चुकी है महगाई के इस दौर में बाप की कम कमाई के कारण दहेज़ के
लिए पर्याप्त इंतजाम न होने के कारण लडकियों की उम्र बढती जाती है अधिक आयु में
शादी होने का प्रभाव समाज पर पड़ता है और अगर अधिक आयु में भी शादी न हो सके तो कई
बार देखने को मिला है की लड़की के बाप ने समस्त परिवार के साथ आत्महत्या कर ली या
फिर बाप के लिए खुद को परेशानी समझने वाली लड़कियां भी आत्महत्या करती देखी गयी है कुछ
लड़के-लड़कियां ऐसी भी है जिन्होंने बिना दहेज़ के प्रेम विवाह किया विडंबना तो ये है
कि दहेज़ देने के बाद भी पुरुष प्रधान समाज के पुरुष व महिलाये भी एक महिला को कम
दहेज़ लाने या और दहेज़ लाने के लिए प्रताड़ित करती है और ये प्रताड़ना कभी कभी इतनी
बढ़ जाती है कि ये हत्या या आत्महत्या का रूप ले लेती है और मध्यम वर्गीय परिवार
सबसे ज्यादा इन मामलो से प्रभावित है सरकार ने दहेज़ विरोधी कानून तो बना दिया लेकिन
समाज की मानसिकता पर कोई असर डालने के लिए कुछ नहीं किया गया और तथाकथित धर्म व
समाज के ठेकेदार इस मुद्दे पर पुरी तरह से खामोश होकर इस कुप्रथा का समर्थन करते
नज़र आते है हलाकि समाज की आपसी समझ के ज़रिये कुछ जगह इस प्रथा का सामूहिक बहिष्कार
भी किया जा चुका है जिसमे एक नाम राजस्थान के मकराना का लिया जा सकता है जहाँ के
मुस्लिम समुदाय ने दहेज़ प्रथा का सामूहिक बहिष्कार कर दिया है और एक एरिया के
अधिकांश लोग अपने ही शहर में लड़के लडकियों का विवाह करते है लेकिन देश, समाज और
धर्मो की बड़ी आबादी आज भी दहेज़ प्रथा जेसी कुप्रथा का पुरजोर समर्थन करती है और
कुछ पैसे वालो में तो ये एक होड़ की शक्ल ले चुका है जहाँ एक पैसे वाला आदमी अपनी
लड़की को शादी में मोटर गाड़ियाँ तक देने लगे है लेकिन इन पैसे वाले लोगो के बीच पिस
रहा है देश का मध्यम और निम्न वर्गीय समाज!
लेकिन जब भी कोई वर्ग इस कुप्रथा का बहिष्कार या विरोध करने का साहस करेगा उसे
सामाजिक बहिष्कार का सामना करना होगा हमारे एक बुज़ुर्ग साथी जो दिल्ली के जाफराबाद
में रहने वाले हाजी उमर साहब जो लगभग सत्तर वर्ष के है इस कुप्रथा को ख़तम करने के
लिए अब से लगभग पच्चीस साल पहले अपने बेटे की शादी बिना दहेज़ और बिना बारात के
करने का इरादा किया और उन्होंने अपने एक दोस्त के बेटे से इस शर्त पर शादी तय की
कि वो न तो बारात लायेंगे और न दहेज़ लेंगे सिर्फ मस्जिद में ही चार अनपच लोगो की
मौजूदगी में निकाह किया जायेगा लेकिन लड़की वालो के ज्यादा कहने पर वो मस्जिद की
जगह लड़की के घर दस-बारह लोगो को लेजाने के लिए राज़ी हो गए क्योकि उन्हें निकाह में
सिर्फ दस बारह लोग ही ले जाने थे इसलिए उन्होंने अपने रिश्तेदारों, खानदान वालो व
मोहल्ले वाले लोगो को जाने की दावत ही नहीं दी लेकिन जब वो दस-बारह लोगो के साथ
लड़की वाले के घर पहुचे तो देखा लड़की वाले ने हज़ार से भी ज्यादा लोगो को बुला रखा
है जिसमे उनके रिश्तेदार और आसपडोसी भी मोजूद है हाजी साहब चाहते थे कि बारात के
नाम पर लड़की वाले के ऊपर जो ज़बरदस्ती के मेहमान लादे जाते है और लड़की वाले को
हजारो रूपए उनके खाने पर बर्बाद करने पढ़ते वो उनसे बाख जाये लेकिन खुद लड़की वाले
ने ही फालतू लोगो को बुला कर पैसे की बर्बादी की और हाजी साहब की कोशिश को नाकाम
कर दिया हाजी साहब को लड़की वाले के बुलावे पर पहुचे अपने रिश्तेदारों से खूब बाते
सुनने को मिली और हाजी साहब को निकाह होते ही घर आना पड़ा घर आकार उन्होंने अपने
कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद किया और अपनी कोशिश नाकाम होने का अफ़सोस करते रहे अगर
उस दिन उनकी ये कोशिश कामयाब हो जाती तो कम से कम उनके इलाके से आज बारात ले जाने
और दहेज़ प्रथा ज़रूर ख़त्म हो सकती थी
इस कहानी से हमें ये पता चला कि लड़की वाले भी अपनी झूटी शान के लिए पैसो की
बर्बादी क़र्ज़ लेकर तक कर रहे है अब ज़रूरत युवा वर्ग के खड़े होने की है जो कहे मैं
बिना दहेज़ के शादी करूँगा लेकिन कही ऐसा न हो की उसे कोई लड़की ही न मिल सके......?
आफताब फ़ाज़िल
फोन +91 9015181526
Beshaq bahut achchi baat kahi hain aapne...Iss jaanlewa bimari ko khatm karne ke liye bahut koshishon ki zarurat hai..jaisa ki aapne kaha ki yuvaaon ko aage aane ki zarurat hai..iske bina kuch nahi ho sakta..jo log koshish karte hain..unki al elaan himayat karni hogi...aur jo log namud aur numaish ke liye fizool kharchi karte hain..unke khilaf hona hoga...likhne ko bahut kuch hai..par aml hi zaruri hai...JazakALLAH Khair..
जवाब देंहटाएंKya baat kahi janab!!! Sau feesad sachh!!!
जवाब देंहटाएंआफताब जी आपने बहुत ही अच्छे तरीके से बताया है। दहेज़ आज के समाज में किस प्रकार प्रचलित है, इसका मुख्या उद्देश्य क्या था परन्तु अब क्या बन गया। आप ऐसी ही जानकारियां अब बहुत ही आसान तरीके से हिंदी में शब्दनगरी पर भी लिख सकते हैं। वहां भी ऐसी ही दहेज़ से महंगी बेटी लेख पढ़ व् लिख सकते है।
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