सोमवार, 12 सितंबर 2016

कितना मुश्किल है आदमी होना भी

 जब भी समाज विपरीत हालात में संघर्ष या अपनी इच्छाओ की क़ुरबानी देने की बात होती है तो लेखको की क़लम को सिर्फ एक अबला नारी तक सिमट कर रह जाती है ये हक़ीक़त भी है कि हमारे सामाजिक ढांचे में एक महिला को बेटी बहन पत्नी या माँ के रूप में बहुत अधिक क़ुरबानी देनी होती है महिलाओ को क़दम क़दम पर समझौता करना होता है देश काफी उन्नति कर चुका है महिलाये पुरुषो के समकक्ष पहुँचने लगी हैं फिर भी समाज में महिलाओ की दशा निंदनीय ही बनी हुयी है ये एक कड़वा सच है लेकिन पुरुषो के जीवन के भीतर यदि कोई झाँकने का साहस कर सके तो पायेगा कि मध्यम व निम्न वर्ग के पुरुषो में भी एक वर्ग ऐसा है जो संघर्ष करता है अपने लिए नहीं अपने परिवार की खुशियों के लिए न जाने बचपन से बुढ़ापे तक उसे कितनी ऐसी कुर्बानियां देनी पड़ती हैं जिनकी तरफ किसी का कभी ध्यान ही नहीं जाता और वो पुरुष चेहरे पर एक दिखावटी हँसी रखकर सारी ज़िन्दगी गुज़र देता है जब एक परिवार में किसी लडके का जन्म होता है तो जशन का महौल बन जाता है जानते हो क्यों क्योकि उसके माँ बाप को उनके बुढ़ापे का सहारा मिल जाता है एक पैदा हुए बच्चे  कंधे पर अभी से उम्मीदों का पहाड़ खड़ा कर दिया जाता है जब वो थोड़ा बड़ा होकर स्कूल जाता है तब अगर उसके परिवार की माली माली हालात कमज़ोर है और उसकी छोटी या बड़ी बहने भी तो उसे स्कूल जाने के दिनों में ही बहनो की शादी के लिए पैसा जोड़ने की चिंता भी सताना शुरू कर देती है और ये चिंता उस मासूम को स्कूल से कारखाने तक ले जाती है जिस उम्र में वह अपने भविष्य को शिक्षा के माध्यम से उज्जवल कर सकता था उसके सपने कि मैं भी बड़ा होकर डॉक्टर इंजिनियर या कोई बड़ा अफसर बनूँगा खरखने की चारदीवारी में कैद होकर दम तोड़ देते हैं उससे उसके सपने पूरे करने तो दूर सपने देखने का हक़ भी छीन लिया जाता है और ये सब वो सिर्फ अपने परिवार की ख़ुशी के लिए करता है शायद ही कुछ लोगो की नज़र उसके बिखरे हुए सपनो तक जा पाती हो बड़ा होते होते वो शायद अपने पारिवारिक दायित्व को पूरा कर देता हो लेकिन उसके सपने उसकी महत्वकांक्षाये उसके अकेले में बहाये गए आंसुओ में बह जाती नहीं हैं जिस पर कभी किसी की नज़र नहीं जाती वो दुःख  में भी अपने परिवार को खुश देखने के लिए ऐसे मुस्कुराता है जैसे वो बहुत खुश है इस सफर में कई लोग सिर्फ अपने सपने या अपनी मह्त्वकांक्षाओ की बलि नहीं चढ़ाते बल्कि कभी कभी वो अपने उस प्यार की भी बलि चढ़ा देते हैं जिसके साथ उन्होंने ज़िन्दगीभर साथ रहना चाहते हो सिर्फ इतने पर ही एक पुरुष की ज़िन्दगी का संघर्ष नहीं ठहरता उसके बाद का उसका जीवन अपने उन बच्चो के सपने पूरे करने में ख़ुशी ख़ुशी गुज़रता है जो शायद बड़े होकर उसका सहारा भी न बन पाए इस तरह के पुरुषो को सिर्फ अपने जीवनसाथी से इतनी सी आशा होती है कि वह उसकी भावनाओ को समझे और अगर उसे इतना भी न मिले तो वो बिखर जाता है एक टूटी हुयी उस माला की तरह जिसे कभी समेटा नहीं जा सकता!
अगर कुछ लेखक इस तरह के पुरुष के अंदर झांक पाए तो उस पुरुष को भी लगेगा की कोई तो है जिसे उसकी चिंता है 
लेखक आफताब फ़ाज़िल 


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