रविवार, 19 फ़रवरी 2017

घुटनों के बल मुस्लिम समुदाय: उत्तर प्रदेश चुनाव

 देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनाव चल रहा है उत्तर प्रदेश में चुनाव जाति के इर्द गिर्द ही गूम कर समाप्त हो जाता है यदि पिछले लोकसभा चुनाव को छोड़ दिया जाये तो इस जातीय समीकरण को सफल बनाने का दायित्व हमेशा से ही मुस्लिम समुदाय पर रहा है आज़ादी के बाद लम्बे समय तक ये कांग्रेस को वोट करता रहा उसके बाद लोकदल व जनता पार्टी के भी साथ गया लेकिन बाबरी मस्जिद की शहादत व् भाजपा के उदय के बाद ये मुस्लिम समुदाय भाजपा को हराने के लिए कई बार दलित नेत्रत्व वाली बसपा की तरफ जाकर बसपा को सरकार बनाने की हालत में पंहुचा चुका है तो कई बार सपा पर मेहंरबान होकर यादवो को सत्ता सौप चुका है हलाकि मौजूदा चुनावो के मद्देनज़र अगर पिछले आंकड़ो को देखा जाये तो अब तक न तो मायावती ही इस मुस्लिम समुदाय की हमदर्द दिखी और न ही अखिलेश यादव क्योकि मायावती भाजपा के साथ कई बार जा चुकी हैं यहाँ तक की गुजरात दंगो के बाद हुए चुनावो में वह गुजरात में मोदी जी के लिए चुनाव प्रचार भी कर चुकी हैं और मुज़फ्फरनगर दंगो के बाद राहत केम्पो में जब ठण्ड से मासूम बच्चे मर रहे थे तब भी कभी मायावती ने बिलखते मुसलमानों की आवाज़ बनने की उन्होंने कोशिश नहीं की अब ज़रा बात करते है मोदी जैसे अखिलेश यादव की दोनों नेताओ में बहुत समानता है दोनों खुद को विकास पुरुष बताते नहीं थकते साथ ही साथ हमें ये भी याद रखना होगा कि जिस तरह गुजरात दंगो में नरेंद्र मोदी मुस्लिम समुदाय की रक्षा करने के प्रसाशनिक दायित्व को पूरा नहीं कर सके ठीक उसी तरह अखिलेश यादव भी मुज़फ्फर नगर दंगो के समय अपने राजधर्म को निभाने में असफल रहे और कोई भी मुख्यमंत्री अपने शासन काल में होने वाले नरसंहारो व सामूहिक बलात्कारो की घटनाओ का ज़िम्मेदार किसी अन्य को बता कर नहीं बच सकता क्योकि यदि वह खुद की असफलता को स्वीकार कर रहा है तो उसे बिना देर किये उसे अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था लेकिन आपने एक कहावत सुनी होगी कि “चोर चोर मौसेरा भाई” 


खेर चलिए कुछ और आगे चलते है अभी फ़िलहाल में ही एमनेस्टी इंडिया ने एक प्रेस नोट जारी किया, जिसमे उन्होंने मुज़फ़्फ़रनगर दंगो के पीड़ितों के लिए अखिलेश यादव प्रशासन के लापरवाह रवैये की ओर इशारा करने वाली कई बातों के साथ-साथ कहा गया है कि "उत्तर प्रदेश सरकार 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद दर्ज करवाए गए गैंगरेप के सात मामलों की तेज़ गति से जांच करवाने और दोषियों को सज़ा दिलवाने में नाकाम रही, और न्याय नहीं दिलवा पाई तीन साल से भी ज़्यादा वक्त बीत जाने के बावजूद किसी एक मामले में भी एक भी व्यक्ति को दोषी करार नहीं दिया गया है बलात्कार के मामलों को अनावश्यक देरी से बचते हुए तेज़ी से निपटाने के लिए भारतीय कानून में वर्ष 2013 में ही किए गए बदलाव के बावजूद इन मामलों की सुनवाई बेहद धीमी गति से चल रही है राज्य सरकार व केंद्र की सरकारें भी पीड़ितों को धमकियों और प्रताड़ना से पर्याप्त सुरक्षा देने में दिलचस्पी लेती नहीं दिखीं हद तो यहाँ तक है कि कुछ मामलों में तो बलात्कार पीड़ितों लगातार मिल रही धमकियों के कारण अपने बयान तक वापस ले लिए हैं ये हालात हैं साब यहाँ न मायावती बोली न राहुल गाँधी की आवाज़ आई और अखिलेश यादव तो सिर्फ सत्ता प्राप्ति के लिए बेक़रार हैं लेकिन जो दंश गुजरात दंगो के बाद नरेंद्र मोदी पर लगा था वही दंश हमेशा अखिलेश यादव का पीछा करता रहेगा वो चाहे तो भी अपने दामन को इन नरसंहारो से साफ़ नहीं कर पाएंगे और खालिद मुजाहिद के खून के दाग तो इनके कुर्ते पर हेमशा दूर से ही नज़र आते रहेंगे चलिए कुछ और आगे चलते हैं अब बात करते है कुंडा की जहाँ सपा, कांग्रेस व् भाजपा तीनो राजा भय्या का मौन समर्थन कर रही हैं तीनो ने राजा भय्या के सामने कोई उमीदवार ही खड़ा नहीं किया है अब ज़रा सवाल कर लेते हैं मुस्लिम कयादत व राजनीतिक हिस्सेदारी का ढोल पीटने वाले अलंबरदारो से सबसे पहला सवाल तो राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल के आमिर रशादी साहब से जिन्होंने वजूद में आने से अब तक ज़मीन पर कौम के लिए संघर्ष किया जहाँ कौम के साथ कोई खड़ा नहीं था वहां आमिर रशादी व् उनकी टीम दिखाई दी लेकिन जब उन्हें हिस्सेदारी मिलती तब उन्होंने भाजपा की सहयोगी रही बसपा को भाजपा को रोकने के नाम पर समर्थन दे दिया बड़ा बचकाना फैसला कर गये मौलाना मुस्लिमो की एक बुलंद आवाज़ को खुद ही गला दबा कर मार गए अब बात करते हैं मुख़्तार अंसारी की जो पहले भी बसपा के साथ रहे हैं इसलिए उनसे शिकायत वाजिब नहीं लेकिन मौलाना बुखारी जिन्होंने कभी अखिलेश से मुस्लिमो के खिलाफ होने वाले रिकॉर्डतोड़ दंगो पर सवाल नहीं किया न कभी आपने पूछा कि आरक्षण के वादे का क्या रहा लेकिन इन्हें भी आखिर चुनाव के वक़्त कौम याद आगई अरे पहले से ही शाही मस्जिद जैसे बुलंद मकाम पर थे राज्य सभा या विधानसभा के लिए अपनी टोपी नीची करने की क्या ज़रूरत थी अखिलेश यादव को अपना अमीर मानने की क्या ज़रूरत थी आप तो खुद कौम के अमीर थे अब बात मुस्लिम कयादत की बात करने वाली हलाकि कुछ और भी लोग है जिन्होंने भाजपा से डर कर सपा को समर्थन दे दिया अगर सिर्फ भाजपा को ही हराना है और एन चुनाव से पहले अपने संघर्षो को छोड़ कर सपा या बसपा के साथ ही जाना है तो क्यों न हमेशा के लिए आप इनमे से किसी एक के हो जाये ताकि वो भी मजबूर हो जाये कि आप नाराज़ न हो जाये आपको अपना वोटबैंक बनाये रखने के लिए ही सही आपकी हिफाज़त तो करे लेकिन जो साथी अपनी कयादत खड़ी करने की मशाल दिल में लिए फिर रहें हैं उनके लिए मेरा सुझाव है कि वो अपने अपने क्षेत्र में ज़मीनी काम में अभी से लग जाये ज़मीनी काम का अर्थ सामाजिक कार्य है समाज को शिक्षित व जागरूक करने के साथ साथ उनके अधिकारों की आवाज़ भी बनिए आप किसी भी राजनीतिक पार्टी के पीछे न लगे चाहे वो कितनी ही कौम परस्त क्यों न हो क्योकि पता नहीं कब वो आपके काम को बेच कर निकल जाये या आपके काम का लाभ कमाने का मौका पैसा देकर किसी पैसे वाले उमीदवार को दे दे और आप रह जाये हाथ पर हाथ धरे और इसलिए आप ग्रामप्रधान बनते हुए अगली विधानसभा में निर्दलिय पहुंचने के लिए कमर कसिये यही अंतिम राजनीतिक विकल्प है और चलते चलते मेरी एक बात याद रखियेगा आपको सिर्फ मुस्लिमो का नहीं सबका नेता बनना है आपकी आवाज़ हर मजलूम की आवाज़ होनी चाहिए लेखक आफताब फ़ाज़िल 

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