मैंने लंबे अरसे से
राजनीतिक चर्चा से दूरी बना रखी है लेकिन अब चुनाव का समय है मुझे आपको आईना
दिखाना ही होगा !
हमारे देश की राजनीति दो धुरियों पर घूमती है पहली धुरी साम्प्रदायिता और
दूसरी धर्मनिरपेक्षता लेकिन वास्तव में ये दोनों ही एक दूसरे की पूरक हैं व ये
दोनों विचारधाराएं ही एक दूसरे को खाद देकर उसे पालती है! यदि इन दोनों में से कोई एक विचारधारा
कमज़ोर होगी तो वह दूसरी विचारधारा के पतन का भी कारण बनेगी लेकिन देश में ऐसा होना
लगभग असंभव सा है! अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए इनके लिए ज़रूरी है कि ये अपनी
विरोधी विचारधारा को फलने फूलने का मौका दें!
कुछ राजनीतिक दल ऐसे भी हैं दशकों
से सत्ता जिनके इर्द गिर्द घूमती रही है लेकिन फिर भी न ये देश के हर बच्चे तक
शिक्षा पहुचा पाए, अस्पतालो मे बीमार लोगो की लंबी लंबी लाइनो को खत्म करना तो
दूर की बात है उन्हे छोटा करने मे इन्हे कोई दिलचस्पी कभी नहीं रही देश का पढ़ा
लिखा नौजवान भी बेरोजगारी के कारण विदेशो मे जाकर अपनी काबलियत उन देशो की तरक्की
मे झोकता रहा देश मे चुनावी मुद्दो मे इन मसलो को कभी जगह ही नहीं मिल सकी!
देश में होने वाले चुनावो में अब विकास, रोज़गार, गरीबी, महंगाई, सुशासन, शिक्षा, स्वास्थय तो होता ही नहीं है! इन सबकी जगह अब जाति, धर्म व क्षेत्रवाद के आधार पर चुनाव जीते जाते हैं! राजनीतिक दल जाति व धर्म का जोड़ घटा करके अपने उम्मीदवार तय करते है और ऐसे उमीदवार जो सत्ता का मज़ा ही जाति व धर्म के आधार पर चखते हैं उनके लिए सत्ता में बने रहने के लिए धर्म या जाति पर खतरा दिखाना ज़यादा ज़रूरी होता है! कोई राजनीतिक दल अल्पसंख्यको को खतरे मे दिखा कर उन्हे वोट बैंक बनाता है तो कोई दलितो को खतरे मे दिखा कर तो कोई अल्पसंखयकों को अत्याचारी बता कर उन पर नकेल लगाने का आश्वासन देकर सत्ता को भोग पाता है और देश की जनता को भी क्या चाहिए सहमे हुये मुसलमान और भव्य राममन्दिर का ख्वाब, बर्बाद होते कारोबारियों और बेरोजगारो की लश्कर को शायद इतना ही काफी है विषय सोचने का है कि जनता मानसिक रूप से कितनी विकलांग होती जा रही है, अल्पसंख्याओ के लिए तो सिर्फ एक ही मुद्दा है कि सांप्रदायिक शक्तियों को कैसे रोका जाए मज़े की बात यह है कि इनके सेकुलर नेता इनके वोट के लिए टोपी पहन कर इन्हे टोपी पहनाते रहे और जब इन सेकुलरों को चुनाव का टिकट न मिले तो यह सांप्रदायिक बनने मे ज़रा भी संकोच नहीं करते! जब भी उन्हे मौका लगा तो वो भी सांप्रदायिक समझे जाने वालों दलो की गौद मे जा बेठे!
देश में होने वाले चुनावो में अब विकास, रोज़गार, गरीबी, महंगाई, सुशासन, शिक्षा, स्वास्थय तो होता ही नहीं है! इन सबकी जगह अब जाति, धर्म व क्षेत्रवाद के आधार पर चुनाव जीते जाते हैं! राजनीतिक दल जाति व धर्म का जोड़ घटा करके अपने उम्मीदवार तय करते है और ऐसे उमीदवार जो सत्ता का मज़ा ही जाति व धर्म के आधार पर चखते हैं उनके लिए सत्ता में बने रहने के लिए धर्म या जाति पर खतरा दिखाना ज़यादा ज़रूरी होता है! कोई राजनीतिक दल अल्पसंख्यको को खतरे मे दिखा कर उन्हे वोट बैंक बनाता है तो कोई दलितो को खतरे मे दिखा कर तो कोई अल्पसंखयकों को अत्याचारी बता कर उन पर नकेल लगाने का आश्वासन देकर सत्ता को भोग पाता है और देश की जनता को भी क्या चाहिए सहमे हुये मुसलमान और भव्य राममन्दिर का ख्वाब, बर्बाद होते कारोबारियों और बेरोजगारो की लश्कर को शायद इतना ही काफी है विषय सोचने का है कि जनता मानसिक रूप से कितनी विकलांग होती जा रही है, अल्पसंख्याओ के लिए तो सिर्फ एक ही मुद्दा है कि सांप्रदायिक शक्तियों को कैसे रोका जाए मज़े की बात यह है कि इनके सेकुलर नेता इनके वोट के लिए टोपी पहन कर इन्हे टोपी पहनाते रहे और जब इन सेकुलरों को चुनाव का टिकट न मिले तो यह सांप्रदायिक बनने मे ज़रा भी संकोच नहीं करते! जब भी उन्हे मौका लगा तो वो भी सांप्रदायिक समझे जाने वालों दलो की गौद मे जा बेठे!
जनता का विवेक मृत हो चुका है नेताओ की
भक्ति अपने चरम पर है अब चुनाव जीतने के लिए मंदिर का घंटा बजाना या इफ्तार मे
टोपी पहन लेना ही काफी है! देश की राजनीति व जनता को विवेकशील समझने का मेरा भरम
उस दिन ही टूट गया था जिस दिन मैंने इरोम चानु शर्मिला का चुनाव परिणाम देखा था!
शायद जितनी पीड़ा इरोम को हुई थी उतनी ही मुझे हुई हो जबकि मुझे पीड़ा के साथ साथ
मुझे शर्मिंगी भी थी कि मैं उस जनता का ही एक हिस्सा हूँ, और
लोकतन्त्र अब भेड़तंत्र से भीड़तंत्र के रास्ते होता हुआ भेड़ियातंत्र का हिस्सा बनता
जा रहा है! अब तो भेड़ियो की भीड़ किसी की भी ह्त्या कर देती है और उन भेड़ियो को
नेता बताया जाता है उनका स्वागत किया जाता है! चुनाव को चुनाव ही समझा जाए तो बेहतर है धर्मयुद्ध समझेंगे तो धर्म में फसे रह जाओगे अच्छा चुनो सच्चा चुना
ऐसे मैं राजनीतिक विकल्पो का जन्म लेना भी
मुश्किल सा प्रतीत होता है!
इंक़लाब ज़िंदाबाद
लेखक: आफताब फ़ाज़िल
सटीक विश्लेषण
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंNice article
जवाब देंहटाएंthanks
हटाएंsahi kaha bhai...main kayi saalon se vote deta raha hun, par iss baar mera mann kisi ko bhi vote dene ka nahi hai, sab ek hi hain, gambheer muddo se door aur bekaar baaton se mashhoor...abhi tak confusion hai ki kisi party ke haq me vote dun ya kisi party ke khilaaf
जवाब देंहटाएंSecular government.
जवाब देंहटाएंगुड
हटाएं