सोमवार, 5 सितंबर 2011

इंसाफ की आस में इरोम चानू शर्मीला

पूर्वोत्‍तर के लिए काला कानून बने आर्म्‍ड फोर्सेस स्‍पेशल पॉवर एक्‍ट (अस्फ्पा) हटाने की मांग लिए इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल अब भी अपने ही देश के शीर्ष नेतृत्‍व और आम जनता की नज़रे इनायत का इंतजार कर रही है।
2 नवंबर 2011 को इरोम चनु शर्मिला के आमरण अनशन को 11 साल हो चुका है। शर्मिला ने वर्ष 2000 में इसी दिन अपना आमरण अनशन शुरू किया था। उन्होंने यह क़दम मणिपुर में 1958 से चले आ रहे शस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (अस्फ्पा) के खिलाफ उठाया था। इसी दिन इंफाल से 10 किमी दूर मालोम गांव में असम रायफल्स के जवानों द्वारा बस बस स्टैंड पर बैठे आम लोगों पर गोलियां चलायी गयी थी, जिसमे 10 लोग मारे गए थे। यह सब इरोम शर्मिला की आँखों के सामने हुआ। यह उनको आहत व व्यथित कर देने वाली घटना थी। वैसे यह कोई पहली घटना नहीं थी जिसमें सुरक्षा बलों ने नागरिकों पर गोलियाँ चलाई हो, यह दमन की चरमसीमा थी।


इसके बाद शर्मिला ने इस कानून को समाप्त करने का प्राण लेकर भूख हड़ताल शुरू कर दी जो आज भी जारी हैं। शर्मिला अपने मांग को लेकर अडिग हैं कि जब तक सरकार इस काले क़ानून (आफ्सपा) को समाप्त नहीं करती, तब तक वह अनशन नहीं तोड़ेंगी। सरकार को जब लगा कि शर्मिला की वजह से उनकी बहुत किरकिरी हो रही है, तो उन्होंने शर्मिला का मनोबल तोड़ने के लिए उन पर आईपीसी की धारा 309 लगाकर  आत्महत्या की कोशिश के आरोप में 21 नवंबर 2000 को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया।

आरम्भ में मणिपुर सरकार और केंद्र सरकार ने उनकी भूख हड़ताल को गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन उनकी भूख हड़ताल की खबर पूरे मणिपुर में आग की तरह फ़ैल गयी। तमाम विरोध और मानवाधिकार संगठनों द्वारा किए गए प्रदर्शन के बावजूद सरकार इस कानून को समाप्त करने को राजी नहीं हुई। इस क़ानून के तहत अधिकतम एक साल तक किसी को जेल में रखा जा सकता है,लेकिन जब भूख हड़ताल की वजह से उसकी हालत ज्यादा ख़राब होने लगी तो सरकार ने आत्महत्या का आरोप में गिरफ्तार कर उसे न्यायिक हिरासत में भेज दिया। तब से वह लगातार न्यायिक हिरासत में हैं। जवाहरलाल नेहरू अस्पताल का वह वार्ड जहाँ उन्हें रखा गया है, उसे जेल का रूप दे दिया गया है। वहीं उनकी नाक से जबरन तरल पदार्थ दिया जा रहा है। इस तरह इरोम शर्मिला को जिन्दा रखने का ‘लोकतांत्रिक’ नाटक पिछले दस वर्षों से चल रहा है।

1956 में नगा विद्रोहियों से निबटने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा पहली बार सेना भेजी गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने संसद में बयान दिया था कि सेना का इस्तेमाल अस्थाई है तथा छह महीने के अन्दर सेना वहाँ से वापस बुला ली जायेगी। पर वास्तविकता इसके ठीक उलट है। सेना समूचे पूर्वोत्‍तर भारत के चप्पे-चप्पे में पहुँच गई। 1958 में ‘आफ्सपा’ लागू हुआ और 1972 में पूरे पूर्वोत्‍तर राज्यों में इसका विस्तार कर दिया गया। 1990 में जम्मू और कश्मीर भी इस कानून के दायरे में आ गया।

इस कानून के अन्तर्गत....
1-सन्देह के आधार पर बगैर वारण्ट कहीं भी घुसकर तलाशी ले सकती है,
2-किसी को गिरफ्तार कर सकती है 
    लोगों के समूह पर गोली चला सकती है। 
3-यह कानून सशस्त्र बलों को किसी भी दण्डात्मक कार्रवाई से बचाती है जब तक कि केन्द्र सरकार उसके लिए      मंजूरी न दे।
इस कानून की आड़ में पिछले 50 साल से सेना की बर्बरता पूर्वोत्तर एवं अन्य राज्यों में जारी है । लूट , बलात्कार , मार-पीट , हत्या आदि का इस्तेमाल आम जनता के खिलाफ़ सेना करती रही हैं।

 शासकीय दमन के खिलाफ़ शर्मिला अकेली आवाज़ नहीं हैं । 2004 में असम राइफल के जवानों ने मनोरमा नाम की महिला का बलात्कार कर उसकी नृशंस हत्या कर दी । इस घटना के विरोध स्वरूप अधेड़ मणिपुरी महिलाओं ने सी आर पी एफ़ के मुख्यालय के सामने निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया जो आधुनिक भारतीय राष्ट्र के लिए के शर्मनाक घटना थी । शर्मिला के इस संघर्ष में कई और जांबाज महिला साथी भी उसके साथ हैं। मणिपुर के कई महिला संगठन पिछले कई सालों से उसके साथ रीले भूख हड़ताल पर प्रतिदिन बैठ रही हैं।


आधुनिक समय में देश को शर्मसार कर देने वाल कानून ब्रिटिश राज के कानूनों से भी बदतर हैं । शर्मिला के लगातार दस साल से चले आ रहे इस आमरण अनशन ने इतिहास तो रच दिया,लेकिन इस सरकार के कान पर जू तक नहीं रेगा हैं। शायद यही वजह है कि पिछले दस वर्षों से शर्मिला के आमरण अनशन पर बैठे रहने के बावजूद भी वह टूटी नहीं हैं। वह आज भी इस काले क़ानून को हटाने की मांग पर अडिग हैं। वह सरकार से अपने लिए रहम की भीख नहीं चाहतीं वह अपना मौलिक अधिकार चाहती जो भारत के संविधान ने सभी को उपलब्ध कराया हैं । वह कहती हैं कि सरकार पहले बगैर किसी शर्त के इस काले क़ानून को समाप्त करे।

इतने बडे़ आन्दोलन पर जनमानस और मीडिया की उपेक्षित रवैया क्यों रहा ? जबकि इरोम का भूख हड़ताल पिछले 10 वर्षो से चल रहा है। विडंबना देखिए कि जो मीडिया दस बरस की भूख से आंखे मुंदे खामोश है वही मीडिया जंतर-मंतर पर चार दिन के भूख समारोह पर किस क़दर हाय तौबा में डूब जाता है। शर्मिला के अनशन ने तो अहिंसात्‍मक प्रतिरोध के मामले में गांधी को भी पीछे छोड़ दिया। और फिर लोक रक्षा का सवाल लोकपाल से कमतर तो नहीं .....?

http://www.sarokar.net/wp-content/uploads/14sld3.jpg 

1 टिप्पणी:

  1. SHAME ON INDIA. THIS SO SHAMEFUL TO ALL INDIANS AND THE COUNTRY AS A WHOLE THAT THERE ARE NO WORDS TO ABUSE INDIA AS A WHOLE.......I MUST SUICIDE FOR FOR BEING BORN IN INDIA.......

    जवाब देंहटाएं