शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

आज़ादी के परवाने को मेरा सलाम

 Ashfaqullah Khan [22 october1900- 19 december 1927]

पंडित रामप्रसाद ' बिस्मिल ' और अशफाकउल्ला खां घनिष्ट मित्र थे । ' बिस्मिल ' पक्के आर्य समाजी थे और अशफाकउल्ला खां पक्के मुसलमान । अशफाकउल्ला खां का कहना था की ' देश सेवा या मित्रता के मामले में मज़हब बीच में कहा आता है ? ' ईशवर उपासना के सिवाय अन्य किसी भी मामले में मज़हब को बीच में क्यों आना चाहिए ?

यह दोनों शाहजहां पुर के निवासी थे । काकोरी काण्ड में अन्य लोगो के साथ साथ ये दोनों भी सम्मिलित थे । दोनों को फांसी की सजा हुई थी । जब काकोरी में रेलगाड़ी लुटने की योजना पर क्रान्तिकारी दल में विचार चल रहा था, तब अशफाकउल्ला ने रेलगाड़ी में से सरकारी खजाना लुटने का यह कह कर विरोध किया था की इस से सरकार हाथ धो कर क्रांतिकारियों के पीछे पड़ जाएगी और हम आगे अपनी गतिविधिया जारी नहीं रख सकेंगे । बात सही थी, परन्तु जब पार्टी के अधिक लोगो ने बहुमत से योजना को स्वीकार कर लिया, तब अशफाकउल्ला उनके साथ हो गए । सभा में खुल कर अपनी बात कहो, परन्तु बहुमत से जो निशचय हो जाये, उसका ईमानदारी से भरसक पालन करो । यही संगठन की नीति है ।

देश में हिन्दू मुस्लिम दंगे 
एक बार शाहज़हा पुर में हिन्दू- मुस्लिम दंगा हो गया, जैसे की उन दिनों सरकारी लोगो के भड़काने पर अनेक शहरो पर होता रहता था और आज भी ऐसे ही बुरे लोगो की वज़ह से होता है । तब अशफाकउल्ला ने ठेठ मुसलमानी वेश धारण किया - शेरवानी और पायजामा ; सिर पर तुर्की टोपी लगाई, जो दूर से ही दीखे । पंडित रामप्रसाद बिस्मिल ने धोती, कुर्ता पहना । माथे पर चन्दन का टिका भी लगाया । दोनों बाज़ार में जा कर खड़े हो गए और लोगो को समझाने लगे की ' सरकार हिन्दुओ और मुसलमानों को आपस में लडाना चाहती है, जिससे अंग्रेज हिंदुस्तान पर राज करते रह सके । हिन्दुओ और मुसलमानों, दोनों को इस बात को समझना चाहिए और एक दुसरे पर छुरा नहीं चलाना चाहिए । दोनों ही भारत माँ की संतान है । दोनों को यहाँ रहना है । तो अच्छा है मिल कर प्रेम से रहे ।
इस अपील का तुरंत और अच्छा प्रभाव पड़ा । दंगा समाप्त हो गया ।

अश्फाक उल्ला खां भावुक और कवि थे । वह ' हसरत ' उपनाम से कविता लिखते थे । राम प्रसाद भी उच्च कोटि के कवि थे । दोनों का डीलडोल बड़ा और सुन्दर था । दोनों कुशल निशानेबाज़ थे । अश्फाक को शिकार का भी शौक था । ' बिस्मिल ' पशु - पक्षियों पर गोली नहीं चलाते थे ।

 राम राम !
अश्फाक उल्ला खां और राम प्रसाद में यह समझोता हो गया था की वे एक दुसरे को नाम ले कर ही बुलाया करेंगे । एक बार अश्फाक को बुखार हो गया । वह अर्ध अचेत अवश्था में ' राम - राम ' पुकारने लगे । घर वालो को खीझ हुई यह मुसलमान ' राम ' को क्यों पुकार रहा है । बाद में भेद खुला की वह  अपने मित्र राम प्रसाद को याद कर रहे थे । राम प्रसाद को बुलाया गया, तो उन्हें बहुत शांति मिली ।

 ऊँचा कद, बलिष्ट शरीर 
अशफ़ाक उल्ला खां कछावर, शक्तिशाली पठान थे । काकोरी की रेल लुट के समय जब लोहे की तिजोरी किसी तरह टूट नहीं रही थी, तब कुल्हाड़ी लेकर उन्होंने चार पांच चोंटो में ही उसे तोड़ दिया था ।

मुसलमान होते हुए भी अशफ़ाक उल्ला हिन्दुओ के बीच में आसानी से खप जाते थे । फरारी के दिनों में वह नाम बदल कर बनारस हिन्दू विश्वविघालय के छात्रावासों में रहते रहे । राजस्थान में अपने एक मित्र अर्जुनलाल सेठी के घर भी वह कुछ समय रहे ।

 मित्र ने गिरफ्तार कराया 
राजस्थान से वह बिहार गये । वहा एक दफ्तर में क्लर्क लग गये । अपनी कविता के कारण उन्हें पदौन्नती भी मिली । दिल्ली में वह अपने एक  मित्र के घर पर ठहरे थे । सरकार से इनाम पाने के लोभ में उसने उन्हें गिरफ्तार करा दिया । काकोरी कांड का एक पूरक मुकदमा चला, जिसमे अशफ़ाक उल्ला खां को फांसी और शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा हुई । अपील की बात चली, तो अशफ़ाक ने कहा : ' मैं अल्लाह के सिवाये किसी से माफ़ी नहीं मांगूंगा । '

19 दिसम्बर 1927 को फैजाबाद जेल में उन्हें फांसी दे गई ।

Some great thoughts of Ashfaq:

मौत और ज़िन्दगी है दुनिया का सब तमाशा,
 न कोई इंग्लिश है न कोई जर्मन,
न कोई रशियन है न कोई तुर्की|
मिटाने वाले हैं अपने हिंदी,
जो आज हमको मिटा रहे हैं||



बुजदिलो को ही सदा मौत से डरते देखा,
गो कि सौ बार उन्हें रोज़ ही मरते देखा|
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा,
मौत को एक बार जब आना है तो डरना क्या है,
हम सदा खेल ही समझा किये, मरना क्या है|
वतन हमेशा रहे शादकाम और आज़ाद,
हमारा क्या है, अगर हम रहे, रहे न रहे ||

शहीदे आज़म अशफाक उल्ला खान की योमे पैदाइश पर मेरा सलाम  

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