एक राष्ट्रवादी संगठन व एक भगवा राजनीतिक दल के नेता राजेन्द्र कासवा जो जैन
समुदाय से है कि दुकान में रखे फिस्फोटक (जिलेटिन की छड़ें व डेटोनेटर) में एक
भयंकर ब्लास्ट हुआ जिसमे 100 से अधिक निर्दोष नागरिक मारे गए व सेकड़ो की संख्या
में लोग घायल हुए कई परिवारों के लालन पालन करने वाले व्यक्ति मारे गए तो कई कमा
कर घर का खर्च चलने वाले अपंग हो गए आनन फानन में राज्य के मुख्यमंत्री बलास्ट
स्थल पर पहुंचे भरी विरोध के चलते मुख्यमंत्री को मुआवज़े का ऐलान करना पड़ा
मुख्यमंत्री ने जाँच के नाम पर हाई कोर्ट के जजों से न्यायिक जाँच की बात कही
लेकिन अब कई दिन बीतने के बाद भी घटना स्थल पर जाँच करने कोई न्यायिक दल नहीं
पंहुचा इस देरी के दो करण हो सकते हैं पहला ऐसे जजों की तलाश जो आतंकवादियों को
फसने से बचा सके दूसरा ये भी हो सकता है कि देरी करके सबूतों को ख़त्म करवाया जा
रहा हो अब ऐसे कई सवाल खड़े होते हैं सरकार पर भी, खुफिया विभाग पर भी और मीडिया की
भूमिका पर भी-
ब्लास्टो की जाँच करने वाली एन० आई० ए० कहाँ गायब है?
बलास्टो के बाद पहले ही सरकार को सूचना देने का दावा करने वाला खुफिया विभाग
कहाँ मातम मना रहा है?
हर ब्लास्ट के बाद तुरंत बाद आतंकवादियों का स्क्रेच जारी कर आतंकवादियों
बनायीं गयी पूरी प्लानिंग बताने वाला मीडिया इस ब्लास्ट पर खामोश क्यों है?
देश में होने वाले हर आतंकी हमले के बाद मीडिया की ओर से आने वाली खरबों से
ऐसा प्रतीत होता है जैसे आतंकवादयों से सारी प्लानिंग ही इन न्यूज़ चेंनल वालो के
सामने बनायीं हो और मीडिया में आतंकवादी के तौर पर अल्पसंख्यको का नाम आते ही सीना
पीट पीट कर देश के सभी अल्पसंख्यको के खिलाफ बयान देने वाले राष्ट्रवादी लगता है
इस ब्लास्ट के होते ही भारत छोड़ कर नेपाल चले गए हैं इसलिए उन लोगो का कोई बयान भी
नहीं आ सका देश में हुए बाकि ब्लास्टो में मारे गए व्यक्तियों के आंकड़ो की तुलना
यदि झाबुआ ब्लास्ट से की जाये तो ये ब्लास्ट भी देश में हुए बड़े ब्लास्टो की
श्रेणी में ही आता है लेकिन ब्लास्ट के लिए सामग्री एकत्र करने वाले व्यक्ति को
आतंकवादी कहने का साहस न सरकार जुटा पाई न विपक्ष और न मीडिया ऐसा लग रहा है जेसे
सभी खामोश रह कर मामले को जल्द ही आम लोगो के ज़ेहन से हटाने में लगे हैं जिससे
साबित होता है आतंकवादी की व्याख्या भी धर्म देख कर ही की जा रही है देश हुए पिछले
ब्लास्टो मक्का मस्जिद ब्लास्ट, समझोता ब्लास्ट, अजमेर दरगाह ब्लास्ट व अन्य में
पहले अल्पसंख्यक समुदाय के लोगो को गिरफ्तार किया गया और मीडिया ने भी ज़ोरदार
तरीके से अल्पसंख्यको आतंकवादियों की पूरी प्लानिंग व जगह की रेकी की कहानी मसाला
लगा कर सुनाई लेकिन बाद में शहीद हो चुके हेमंत करकरे ने आतंकवाद के असली चेहरे से
नकाब नोच दिया और संघवी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, कर्नल पुरोहित व स्वामी असीमानंद जैसे
आतंकवादियों को कटघरे में ले जाकर खड़ा कर दिया इन आतंकवादियों के पास से नकली
दाड़ीयां भी बरामद हुयी जिससे साबित हुआ कि धमाको का आरोप अल्पसंख्यक समुदाय पर
लगाने का पूरा प्लान था अब झाबुआ ब्लास्ट में जिन विस्फोटको में ब्लास्ट हो गया और
छापामारी में पुलिस को राजेन्द्र कासवा के भाई के घर से भी 69 डेटोनेटर व बड़ी
संख्या में जिलेटिन की छड़े बरामद हुयी हैं ये सब किस काम के लिए एकत्र किये गए थे
कही ऐसा तो नहीं था कि फिर से देश के अलग अलग हिस्सों में ब्लास्ट करवा कर फिर से
एक विशेष अल्पसंख्यक समुदाय पर आरोप मढने की तैयारी की जा रही हो?
मुख्य आरोपी की गिरफ़्तारी की खबरे भी आरही हैं लेकिन इनकी पुष्टि होनी अभी
बाकि है लेकिन आरोपी को सरक्षण देने वालो के हाथ बहुत बड़े हैं ब्लास्ट में मिले
ज़ख्त तो फिर भी भर जायेंगे लेकिन इन विस्फोटको से अगर कही ब्लास्ट करके नफरत की
दीवारे खड़ी की जाती तो उन्हें गिराने में ज़माना लग जाता और फ़साये गए बेगुअनाहो को
अपनी बेगुनाही साबित करने में उम्र का एक बड़ा हिस्सा लग जाता अफ़सोस की बात ये है
कि जिस आतंक के चेहरे को स्वर्गीय हेमंत करकरे ने बेनकाब किया था आज उस आतंक के चेहरे
को छुपाने के भरसक प्रयास किये जा रहे हैं
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