मेरा मानना है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ नया कानून बनाने देने से या लोकपाल के बन जाने से भ्रष्टाचार कम या खत्म नहीं हो जाएगा। आज पूरे देश में जो विरोध हो रहा है। वह भ्रष्टाचार के लिए नया कानून बनाने के लिए नहीं हो रहा है। दरअसल, यह जो विरोध हो रहा है, वह मुख्य रूप से भ्रष्टाचार के खिलाफ है। राजनीतिक वर्ग के खिलाफ है। यह विरोध किसी पार्टी विशेष के प्रति नहीं है। यह विरोध राजनीतिक वर्ग के प्रति है। लोगों को यह लगता है कि उन्हें ठगा जा रहा है। इसलिए राजनीतिक वर्ग के प्रति लोगों के विास में जबर्दस्त कमी आई है। उसी का नतीजा है कि लोग राजनीति वर्ग के खिलाफ विरोध करने अन्ना के नेतृत्व में सड़कों पर उतर आए हैं। जहां तक भ्रष्टाचार के कम होने या खत्म होने का सवाल है तो मेरा मानना है कि अगर रित लेने वाला दोषी है तो रित देने वाला भी कम दोषी नहीं है। आप अपनी सुविधा-सहूलियत के लिए रिशवत देते हैं तो आप निदरेष कैसे हो सकते हैं? लेकिन रामलीला मैदान में बैठे हुए लोगों द्वारा यह नहीं बताया जा रहा था कि आप रिशवत देते हैं, इसलिए आप भी दोषी हैं। यहां यह बताया जा रहा था कि आप जो रिशवत देते हैं, वह आपकी मजबूरी है और नेता जो भ्रष्टाचार करता है, वह चोरी है। यह सोच सही नहीं है। इसमें दोनों चोर हैं लेकिन रिशवत देने वाला अपने बचाव में मजबूरी का चोला पहने हुआ है। ऐसे हालात में भ्रष्टाचार कम या खत्म नहीं होगा। भ्रष्टाचार तभी कम या खत्म होगा, जब सबकी इसमें भागीदारी होगी।
सिर्फ कानून बनाने मात्र से कुछ नहीं होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए अगर कानून से गुनाह कम होता है तो हमारे यहां गुनाह ही नहीं होता। हमारे देश में कत्ल के अपराध में फांसी का प्रावधान है। लेकिन इसके बावजूद कत्ल के गुनाह में कहां कमी आ रही है? औरतों के प्रति अपराध के लिए हमारे देश में कठोर सजा का प्रावधान है लेकिन औरतों के प्रति अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं। फिर यह हम कैसे मान लें कि नया कानून बना देने से या जनलोकपाल के आ जाने से ही भ्रष्टाचार कम या खत्म हो जाएगा।
फितरत बदले तो मिटे भ्रष्टाचार अगर सही मायने में हम लोग भ्रष्टाचार से मुक्त समाज चाहते हैं तो हर किसी को अपनी फितरत बदलनी होगी। सभी को अपनी जवाबदेही तय करनी होगी। राजनेता को भी यह सोचना होगा कि जनता ने उनका चुनाव कर उन्हें जो ताकत दी है, वह उनकी मिल्लकीयत या जागीर नहीं है। वे किसी खजाने के मालिक नहीं हैं बल्कि जनता द्वारा उन्हें नियुक्त किया गया है। इसलिए उस पद पर पहुंचकर जनता की सेवा करनी चाहिए। नेता को मालिक नहीं सेवक होना चाहिए। लेकिन व्यवहार में ऐसा होता नहीं है। पद मिलते ही राजनीतिक नेता जनता को नौकर समझने लगते हैं। लेकिन नेता का धर्म यही है कि वे जनता की सेवा करें। दूसरा सबसे अहम पहलू यह है कि जनता को अपने अधिकार और कर्त्तव्य दोनों के प्रति जागरूक होना चाहिए। लोग अपने अधिकार के प्रति तो जागरूक हैं लेकिन कर्त्तव्य के प्रति नहीं हैं। हर कोई खुद को और अपने परिवार को सहूलियत देने में लगा हुआ है। ऐसे में लोग भूल जाते हैं कि जब हम राष्ट्र के प्रति उदासीन होते हैं, तब चोरों को मौका मिल जाता है। इसलिए हमें अपनी तिजोरी के प्रति जागरूक होना चाहिए। अगर तिजोरी की पहरेदारी नहीं करेंगे तो चोरी होना लाजमी है। आज के दौर में अपने परिवार के प्रति जो कर्त्तव्य बनता है, उसे पूरा करने में ही हम लोग व्यस्त रहते हैं। जरूरत इस बात की है कि परिवार के साथ-साथ समाज और राष्ट्र के प्रति जो हमारा कर्त्तव्य बनता है, उसका भी निर्वाह करें। इसलिए परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति जो कर्त्तव्य है; उसके निर्वाह में संतुलन बनाने की जरूरत है।
दूध का उफान है आंदोलन
इधर कुछ दिनों से देश के विभिन्न कोनों और दिल्ली में भ्रष्टाचार के प्रति जो विरोध हो रहा है। उन्हें दूध में आया उफान मात्र कह सकते हैं। जैसे ही दूध के पतीले को चूल्हे की आग से हटाते हैं, उफान खुद व खुद खत्म हो जाता है। दरअसल, इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में दो तबके के लोग अन्ना के पीछे हैं। एक तो छात्र वर्ग, दूसरा देश का मध्यवर्ग। छात्रों को जश्न मनाने का मौका मिल गया है लेकिन उन्हें अपने भविष्य की चिंता भी है। इसलिए वे अधिक दिनों तक भाग-दौड़ नहीं कर सकते हैं। इन्हें अपनी पढ़ाई के लिए परिसरों में लौटना ही पड़ेगा। आंदोलन में शरीक देश का मध्यवर्ग दूसरा अहम घटक है। इसमें मुख्य रूप से नौकरी पेशा वाले लोग हैं। इनको अपनी नौकरी बजानी है। अत: इन्हें अपने नौकरी पर वापस जाना ही होगा। उपरोक्त दो वर्ग की भागीदारी और उनकी बाकी जिम्मेदारियों को देखते हुए मुझे स्पष्ट लगता है कि भ्रष्टाचार के विरोध में जारी आंदोलन अधिक दिन चलने वाला नहीं है। हमारे देश में भ्रष्टाचार तभी खत्म होगा जब रिशवत देना कम होगा क्योंकि जब रिशवत देना कम होगा तो स्वाभाविक है कि लेना भी कम होगा। अभी जो लोग रामलीला मैदान में अन्ना के साथ धरना पर बैठे हुए थे वे लौटते वक्त ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन कर 100-50 रु ट्रैफिक पुलिस को थमाकर आगे निकले जा रहे थे । एक भी व्यक्ति चालान लेने के लिए तैयार नहीं था ऐसे में भ्रष्टाचार कैसे खत्म होगा? इसलिए केवल कानून बना देने से या कानून में परिवर्तन से अधिक जरूरी है कि जो कानून पहले से अस्तित्व में हैं, उन्हें अधिक सक्षम और सुदृढ़ बनाया जाए। इसके साथ ही भ्रष्टाचार तभी खत्म होगा जब हम खुद के भ्रष्टाचार को कम करेंगे। भ्रष्टाचार को कम या खत्म करना है तो खुद से भी लड़ने की जरूरत है।
http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=9
सिर्फ कानून बनाने मात्र से कुछ नहीं होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए अगर कानून से गुनाह कम होता है तो हमारे यहां गुनाह ही नहीं होता। हमारे देश में कत्ल के अपराध में फांसी का प्रावधान है। लेकिन इसके बावजूद कत्ल के गुनाह में कहां कमी आ रही है? औरतों के प्रति अपराध के लिए हमारे देश में कठोर सजा का प्रावधान है लेकिन औरतों के प्रति अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं। फिर यह हम कैसे मान लें कि नया कानून बना देने से या जनलोकपाल के आ जाने से ही भ्रष्टाचार कम या खत्म हो जाएगा।
फितरत बदले तो मिटे भ्रष्टाचार अगर सही मायने में हम लोग भ्रष्टाचार से मुक्त समाज चाहते हैं तो हर किसी को अपनी फितरत बदलनी होगी। सभी को अपनी जवाबदेही तय करनी होगी। राजनेता को भी यह सोचना होगा कि जनता ने उनका चुनाव कर उन्हें जो ताकत दी है, वह उनकी मिल्लकीयत या जागीर नहीं है। वे किसी खजाने के मालिक नहीं हैं बल्कि जनता द्वारा उन्हें नियुक्त किया गया है। इसलिए उस पद पर पहुंचकर जनता की सेवा करनी चाहिए। नेता को मालिक नहीं सेवक होना चाहिए। लेकिन व्यवहार में ऐसा होता नहीं है। पद मिलते ही राजनीतिक नेता जनता को नौकर समझने लगते हैं। लेकिन नेता का धर्म यही है कि वे जनता की सेवा करें। दूसरा सबसे अहम पहलू यह है कि जनता को अपने अधिकार और कर्त्तव्य दोनों के प्रति जागरूक होना चाहिए। लोग अपने अधिकार के प्रति तो जागरूक हैं लेकिन कर्त्तव्य के प्रति नहीं हैं। हर कोई खुद को और अपने परिवार को सहूलियत देने में लगा हुआ है। ऐसे में लोग भूल जाते हैं कि जब हम राष्ट्र के प्रति उदासीन होते हैं, तब चोरों को मौका मिल जाता है। इसलिए हमें अपनी तिजोरी के प्रति जागरूक होना चाहिए। अगर तिजोरी की पहरेदारी नहीं करेंगे तो चोरी होना लाजमी है। आज के दौर में अपने परिवार के प्रति जो कर्त्तव्य बनता है, उसे पूरा करने में ही हम लोग व्यस्त रहते हैं। जरूरत इस बात की है कि परिवार के साथ-साथ समाज और राष्ट्र के प्रति जो हमारा कर्त्तव्य बनता है, उसका भी निर्वाह करें। इसलिए परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति जो कर्त्तव्य है; उसके निर्वाह में संतुलन बनाने की जरूरत है।
दूध का उफान है आंदोलन
इधर कुछ दिनों से देश के विभिन्न कोनों और दिल्ली में भ्रष्टाचार के प्रति जो विरोध हो रहा है। उन्हें दूध में आया उफान मात्र कह सकते हैं। जैसे ही दूध के पतीले को चूल्हे की आग से हटाते हैं, उफान खुद व खुद खत्म हो जाता है। दरअसल, इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में दो तबके के लोग अन्ना के पीछे हैं। एक तो छात्र वर्ग, दूसरा देश का मध्यवर्ग। छात्रों को जश्न मनाने का मौका मिल गया है लेकिन उन्हें अपने भविष्य की चिंता भी है। इसलिए वे अधिक दिनों तक भाग-दौड़ नहीं कर सकते हैं। इन्हें अपनी पढ़ाई के लिए परिसरों में लौटना ही पड़ेगा। आंदोलन में शरीक देश का मध्यवर्ग दूसरा अहम घटक है। इसमें मुख्य रूप से नौकरी पेशा वाले लोग हैं। इनको अपनी नौकरी बजानी है। अत: इन्हें अपने नौकरी पर वापस जाना ही होगा। उपरोक्त दो वर्ग की भागीदारी और उनकी बाकी जिम्मेदारियों को देखते हुए मुझे स्पष्ट लगता है कि भ्रष्टाचार के विरोध में जारी आंदोलन अधिक दिन चलने वाला नहीं है। हमारे देश में भ्रष्टाचार तभी खत्म होगा जब रिशवत देना कम होगा क्योंकि जब रिशवत देना कम होगा तो स्वाभाविक है कि लेना भी कम होगा। अभी जो लोग रामलीला मैदान में अन्ना के साथ धरना पर बैठे हुए थे वे लौटते वक्त ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन कर 100-50 रु ट्रैफिक पुलिस को थमाकर आगे निकले जा रहे थे । एक भी व्यक्ति चालान लेने के लिए तैयार नहीं था ऐसे में भ्रष्टाचार कैसे खत्म होगा? इसलिए केवल कानून बना देने से या कानून में परिवर्तन से अधिक जरूरी है कि जो कानून पहले से अस्तित्व में हैं, उन्हें अधिक सक्षम और सुदृढ़ बनाया जाए। इसके साथ ही भ्रष्टाचार तभी खत्म होगा जब हम खुद के भ्रष्टाचार को कम करेंगे। भ्रष्टाचार को कम या खत्म करना है तो खुद से भी लड़ने की जरूरत है।
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sahi kaha bhai.aaj agar india me corruption h to iske liye janta aur neta dono hi jimmewar hain.
जवाब देंहटाएंAbsolutly I also aggri with you....
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