मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

क्या बदलेगा मुस्लिम समाज......????

अजमेर में ख़्वाजा़ मुईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह की दरगाह पर सालाना उर्स चल रहा हो तो लाखों की तादाद में मुसलमान बसों मे भर-भर कर अजमेर पहुँच जाते हैं। इनमें बड़ी तादाद में औरते और बच्चें भी शामिल हैं। इस वर्ष मार्च में मक्का से हरम शरीफ़ यानि ख़ाना-ए-काबा के इमाम भारत आए तो उनके पीछे नमाज़ पढ़ने के लिए लाखों मुसलमान 200-300 किलोमीटर दूर तक से दिल्ली और देवबंद पहुँच गए। इससे पहले फरवरी में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िला बिजनौर में हुए तब्लीग़ी जमात के तीन रोज़ा इज़्तमा में 11 लाख लोगों के लिए पंडाल का इंतज़ाम किया गया था लेकिन वहां 25 लाख से ज़्यादा लोग पहुँचे। हज़ारों लोग काम-काज छोड़ कर कई हफ़्तों तक इज़्तमा में आने वालों की ख़िदमत में लगे रहे। इससे पता चलता है कि धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए मुसलमान किस हद तक दिलोजान से तन मन धन लगाकर काम करते हैं।
अब ज़रा तस्वीर के दूसरे रुख़ पर ग़ौर करें। पिछले दिनों सहारनपुर में मुस्लमानों पिछड़ेपन को दूर करने को लेकर और विकास का एजेंडा तय करने और उसे राजनीति की मुख्यधारा में लाने के लिए एक सम्मेलन हुआ। इसमें लागू करने की मांग के साथ सत्ता में हिस्सेदारी का सवाल भी शामिल था। इसमें बमुश्किल तमाम पच्चीस मुसलमान पहुँचे। इसके अगले दिन बिजनौर में पिछड़े वर्ग के मुसलमानों का सम्मेलन हुआ स्थानीय लोगों ने पांच हज़ार से ज़्यादा की भीड़ जुटाने का ऐलान किया था लेकिन सम्मेलन में कुल जमा 100 लोग भी नहीं पहुँचे।
2009 मार्च में दिल्ली में लोकसभा चुनाव से पहले मुसलमानों के तमाम संगठनों ने मिलकर दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली की। रैली का एजेंडा था मुसलमानों की सत्ता में हिस्सेदारी, इनके विकास के लिए जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों पर अमल की मांग। इस रैली में लोगों को लाने के लिए बड़े पैमाने पर बसों का इंतज़ाम किया गय़ा था। लोगों के बैठने के लिए 50 हज़ार कुर्सियों का इंतज़ाम था लेकिन रैली में दो हज़ार लोग भी नहीं पहुँचे। लेकिन पिछले दिनों रामलीला मैदान में इमाम-ए-हरम के पीछे नमाज़ पढ़ने वाली की ऐसी भीड़ उमड़ी कि पैर रखने की भी जगह नहीं बची। धार्मिक आयोजनों के मौक़ों पर मुसलमानों का जोश बल्लियों उछलता है। लेकिन जब समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए तालीमी और सियासी बेदारी का मामला आता है तो ये जोश बर्फ़ की तरह ठंडा पड़ जाता है। शबेरात को नफ़िल नमाज़ पढ़ने के लिए मुसलमान रात-रात भर जागते हें। क़ब्रिसतान में जाकर फ़ातिहा पढ़ते है। रमज़ान में दिन भर टोपी सिर से नहीं उतरती। तरावीह पढ़ने के लिए दूर-दूर तक चले जाएंगे। लेकिन जब समाजाकि, तालीमी और सियासी बेदारी के लिए काम करने का मसला आता है तो लोगों को अपने रोज़गार की फ़िक्र सताने लगेगी। फ़िक्र भी ऐसी मानों अगर एक दिन काम नहीं करेंगे तो शाम को घर में चूल्हा नहीं जलेगा। उनका परिवार भूखा मर जाएगा। लेकिन ऐसे तर्क देने वाले लोग धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए दिन रात एक कर देते हैं। इस लिए ताकि वो सवाब कमा सकें। सवाब मिलेगा। ज़रूर मिलेगा। लेकिन कब? मरने के बाद। किसको कितना सवाब मिलेगा इसका फ़ैसला क़यामत के दिन होगा। क़यामत कब आएगी ये भी किसी को पता नहीं। सवाब के चक्कर में मुसलमान अपनी दुनियादारी की वो तमाम ज़िम्मेदारी भूल जाते हैं जिन्हें निभाना फ़र्ज़ है। नबी-ए-करीमहजरत मुहम्मद (सअव) ने तालीम हासिल करने को हर मर्द और औरत पर फ़र्ज़ बताया। ये भी कहा कि तालीम हासिल करो चाहे चीन जाना पड़े। लेकिन यहां किसी को उन मुसलमानों के बच्चों की तालीम फ़िक्र ही नहीं है जो ग़ुरबत की वजह से अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में नहीं भेज सकते। सरकार ने मुफ़्त तालीम को ज़रूरी बना दिया है। मुसलमानों के विकास के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनती है। सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों पर अमल के लिए सरकार ने क़रीब 40 हज़ार करोड़ रुपए का बजट दिया है। लेकिन उन पर अमल नहीं हो पा रहा है। अमल हो जाए तो मुसलमानों की आने वाली नस्लों की तक़दीर संवर जाए। जमहूरियत में ताक़त दिखा कर ही अपने हक़ में फ़ैसले कराए जाते हैं। लेकिन अपनी ताक़त दिखाने में मुसलमान सबसे पीछे है। मुट्ठी भर गुर्जर और जाट जब चाहते हैं सड़कों और रेल की पटरियों पर बैठ कर जिस सरकार को चाहते है झुका देते हैं। अण्णा हज़ारे और बाबा रामदेव नें चंद लाख लोग इकट्ठे किए और यूपीए सरकार की चूलें हिला दीं। लेकिन धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले मुसलमान जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफ़ारिशें लागू कराने की मांग करने के लिए एक दिन के लिए दिल्ली के रामलीला मैदान या जंतर मंतर पर नहीं आ सकते। क्योंकि इन्हें अपनी आने वाली नस्लों के विकास से कोई मतलब नहीं है इन्हें तो बस अपने लिए जन्नत में जगह और ढेर सारा सवाब चाहिए।
दरअसल, धार्मिक रहनुमाओं ने मुसलमानों को घुट्टी पिला रखी है कि ये दुनिया फ़ानी है। इसके बाद यानि मरने के बाद आख़िरत की ज़िंदगी शुरू होगी जो कभी ख़त्म नहीं होगी। दुनिया को छोड़ कर बस उसी के लिए काम करो। मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबक़ा इसी बहकावे में आकर दुनिया और दुनियीदारी की अपनी तमाम ज़िम्मेदारियां भुला बैठा है। ये तबक़ा तालीम की कमी और ना समझी में धार्मिक रहनुमाओं का एजेंड़ा पूरा करने में जुटा हुआ है। हैरानी की बात ये है कि इनमें से ज़्यादातर पिछड़े हुए मुसलमान हैं।
धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए लाखों का तादाद मे जमा होने वाले मुसलमानों में 90 फ़ीसदी पिछड़े हुए मुसलमान ही होते है। ये अपना क़ीमती वक़्त बर्बाद करते हैं। पैसा बर्बाद करते हैं। और इन्हें मज़हबी जुनून मे अंधा करने वाले मज़े लूटते हैं। ताज्जुब की बात है कि मुसलमानों के तमाम धार्मिक संगठनों और मसलकी संगठनों पर उंचे तबक़े के मुसलमान क़ाबिज़ है। कामयाब धार्मिक आयोजनों के आधार पर ये तमाम संगठन मुस्लिम देशों से बेहिसाब पैसा इकट्ठा करते हैं। ये सारा पैसा ज़कात और ख़ैरात के रूप में ग़रीब मुसलमानों की मदद के लिए आता है। लेकिन उन तक पहुँचने के बजाए के मुस्लिम संगठनों के रहनुमाओं की तिजोरियों में पहुँच जाता है।
धार्मिक रहनुमाओ नें मुसलमानों को ज़मीन से नीचे (क़ब्र के अज़ाब) और आसमान के उपर की बातों में ऐसा उलझा रखा है कि ज़्यादातर मुसलमान दुनिया में आने का असली मक़सद ही भूल बैठे है। सवाब कमाने के चक्कर में वो अपने विकास से ग़ाफ़िल हो जाते हैं। धार्मिक रहनुमाओं की इस दकियानूसी सोच और मुसलमानों को पिछड़ा रखने की साज़िश के ख़िलाफ समाज में आवाज़ भी नहीं उठती। कभी कोई आवाज़ उठाने की कोई हिम्मत करता भी है तो फ़तवे जारी करके उसकी आवाज़ दबा दी जाती है। या फिर डरा धमका पर उसे चुप करा दिया जाता है। इसका सबसे बड़ा शिकार पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान हो रहे हैं।
संसद और विधानसभाओं में उनकी कोई रहनुमाई है नहीं। ऊँचे तबक़े की रहनुमाई वाले मुस्लिम संगठन कभी उनके हक़ की बात नहीं करते। इसके उलट वो मुस्लिम हितों के नाम पर धार्मिक मसलों पर सरकारों से डील करने में लगे रहते हैं। उनके अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिए बढ़िया पब्लिक स्कूल बने हुए हैं। इनकी फ़ीस इतनी ज़्याद होती है कि आम पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान इतनी फ़ीस दे नहीं सकता। ये तमाम संगठन मिलकर मुफ़्त शिक्षा के क़ानून के दायरे से खुद को बाहर रखने की मांग कर रहे हैं। ताकि ग़रीब पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान वक़्फ़ बोर्ड की मुफ़्त जमीन पर चलने वाले इनके हाई प्रोफ़ाइल स्कूलों में मुफ़्त शिक्षा क़ानून के नाम पर दाखिले का दावा ही न कर सके। पिछड़ेपन के शिकार मुसलमानों के लिए इन्होंने हर मस्जिद की बग़ल में एक मदरसा बना दिया है। मदरसे के बाद तमाम दारुल उलूम हैं जहां इनके लिए मज़हबी तालीम तैयार है। ताकि ग़रीब और पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान मज़हबी तालीम हासिल करके मस्जिद में मुज़्ज़न और इमामत कर सकें। सवाल ये है कि आख़िर कब तक अंधेरे से उजाले की तरफ़ लाने वाले इस्लाम मज़हब को मानने वाले मुसलमान ख़ुद गुमराही के अंधेरे में पड़े रहेंगे..? ख़ासकर पिछड़ेपन के शिकार मुसलमानों को अब सोचना होगा कि वो धार्मिक संगठनों की ख़ुशहाली के लिए कब तक अपना ख़ून पसीना बहाते रहेंगे। जन्नत में जगह और सवाब के साथ अगर उनके बच्चों को दुनिया में इज़्ज़त भी मिल जाए तो क्या हर्ज़ है। इसके लिए करना सिर्फ़ इतना है कि जिस तरह ये धार्मिक आयोजनों के कामयाब बनाने के लिए तन, मन और धन से जुट जाते हैं। उसी तरह समाजी, तालीमी और सियासी बेदारी वाले कार्यक्रमों को कामयाब बनाने के लिए भी ऐसा ही जोश दिखाएं तो आने वाली पीढ़ियों की क़िसम्त संवर जाएगी। नहीं तो आने वाली नस्लें हमें कभी माफ नहीं करेंगी। हमें अपने दिल पर हाथ रख कर सोचना चाहिए जब तक मुस्लमान ख्वाबों में जीना छोड़कर वास्तविकता में जीना नहीं सिखते तब तक भला नहीं होगा।

क्या बदलेगा मुस्लिम समाज, वो समाज कभी नहीं बदल सकता। जिसमें बदलें की चाह और अहसास ही ना हो। बड़ी मशहुर कहावत है। कि ” सो ते को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जो जागता हो उससे कैसे जगाया जा सकता है” मुस्लिम समाज के दीनी रहनुमाओं ने मुस्लमानों को कुछ ऐसा ही बना दिया है। उन्हें मौत के बाद की जिन्दगी के सब्ज बाग दिखाकर, उनकी मौजुदा जिन्दगी का ही नक्शा बदल दिया है। उन्हें मौत के बाद मिलने वाली पाक साफ बीबियों की तो फिकर है, मगर वो मौजुदा बीबियों के हलात से बे-खबर हैं। वो मौत के बाद मिलने वाली असल जिन्दगी के चक्कर में, अपनी मौजुदा जिन्दगी को जहनुम बनाने में लगे हुए है। वो सबाब कमाने के चक्कर में, विकास को भूल रहे हैं। नबी-ए-करीम हजरत मोहम्मद (सलव) ने फरमाया था- कि आपको शिक्षा यानि तालीम पाने के लिए चाहे चीन क्यों न जाने पढ़े। कुरआन-पाक और हजुर-ए-पाक ने यह कभी नहीं फरमाया कि मुस्लमान डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफसर, वैज्ञानिक इत्यादि न बन सकता। लेकिन वो बनेगे कब जब उनको ऐसा करने के लिए प्रेरित किया जाऐगा और वातावरण बनाया जाए। वो कौन कर सकते हैं वो डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफसर, वैज्ञानिक और उसकी अमियत समझने वाले या फिर सही मायनो में मुस्लिम कौम के दर्द को समझने वाला। कोई और दुसरा नहीं।


 लेखक  मो. रफीक चौहान(एडवोकेट)
inqlaab zindabad 

3 टिप्‍पणियां:

  1. u r correct ye mullacracy jab tak khatam nahi hogi jab tak musalmano ke halat sudharne wale nahi hain kyonki ek makhsoos tabke ne musalmano ke sare resources par kabza kiya hua hai pichre musalman ko sirf chor diya gaya hai...............masjidon me ibadat karne ke liye aur jamaato me jane ke liye ,,,,meri baat se galat fahmi na ho ke masjido me jana galat hai lekin jo log kaum ke sarbara bante firte hain wo khud to bare aalishan makano me rehte hain unki auladein gariyon mein ghoomti hain.koi rajyasabha ka mp hai to koi mlc............agar musalmaan ab bhi na jage to kab jagenge..................

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  2. Mere pyare bhaiyo siyasi logo ne bar bar Musalmano ko thaga hai.Jo mudde aap ne ujagar kiye hai beshak wo aham hai lekin in Muddo keliye Ulama ki sarparasti zaroori hai Bharat ke logo ka wishwas unhone apni sacrifice ke bad jita hai qaum keliye qurbani ki misal unki shandar hai.kya aap ko pata nahi 60,000 ulama ne fansi ke fande ko chooma hai Desh ko azadi dilane keliye.Agar aap chahte hai aur aap isme Mukhlis hai to Ulama ko apna sarparast banawo Bharat ki poori Muslim biradari in muddo keliye Aisi hi jama hogi jaise dharmik kamo ke liye jama hoti hai.

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